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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


अंगूठी की खोजः

नवलकिशोर बाहर गए थे। अपने घर की और वृजांगना की देखभाल वे मेरे ही ऊपर छोड़ गए थे। नगर छोड़ने से पहले पाँच मिनट के लिए वृजांगना से मिल लेना शायद अनुचित न होगा, यही सोचकर मैं उसके मकान की तरफ चला। साथ ही मुझे यह भी जानना था कि नवलकिशोर कब लौटने वाले हैं। जब मैं उनके घर पहुँचा करीब आठ बज रहे थे। वह सबसे ऊपर वाली छत पर एक कालीन डाले पड़ी थी। मुझे देखते ही उठकर बैठ गई।
मैं उसके घर आज कई दिनों में आया था। वह कुछ नाराजी के साथ अधिकारपूर्ण स्वर में किंतु मुस्कराती हुई बोली, तुमने तो आना ही छोड़ दिया योगेश? क्‍या किया करते हो? “वे” घर नहीं हैं तो क्या तुम्हें भी न आना चाहिए?
मैंने उसकी बात का कुछ उत्तर न देते हुए पूछा, नवल भैया कब आएँगे विरजो?
-कल सबेरे चार बजे की गाड़ी से, वह प्रसन्‍न होती हुई बोली।

मैंने एक निश्चिंतता की साँस ली। मैं सुबह यहाँ से जाऊँगा। उस समय तक नवलकिशोर आ जाएँगे। विरजो अकेली न पड़ेंगी। इससे मुझे प्रसन्‍नता ही हुई। पास ही आए हुए कई दिन के “लीडर' पड़े थे जिनसे विरजो को विशेष प्रेम न था; अतएव वे खोले भी न गए थे। मैंने तारीखवार उन्हें देखना शुरू किया। मुझे पढ़ते देख वृजांगना फिर कुछ न बोली। वह मेरे स्वभाव से भली-भाँति परिचित थी; अतएव पढ़ने-लिखने के समय वह मुझसे कभी किसी प्रकार की बातचीत न करती थी। कुछ देर बाद मेरी तंद्रा-सी टूटी । घड़ी पर नजर पड़ते ही देखा कि काफी रात बीत चुकी है। मैं तो केवल पाँच मिनट के लिए आया था।

वृजांगना सो चुकी थी। काले कालीन पर उसका मुँह पृथ्वी पर एक दूसरा पूर्णिमा का चाँद-सा दिख रहा था। उसे मैं क्षण भर देखता रहा। मेरा विवेक, मेरा ज्ञान, मेरी बुद्धि जाने कहाँ अंतर्निहित हो गई। मैं अपने आपे में न रह गया।

आज उसकी स्मृति ही सौ-सौ बिच्छुओं के दंशन से भी अधिक पीड़ा पहुँचा रही है, किंतु उस समय तो मैं शायद बेहोश था। मुझे तो होश उस समय आया जब बैंने वृजांगना को फूट-फूटकर रोते देखा । मुझे याद है उसके यही शब्द थे 'तुमने तो मुझे कहीं का न रखा योगेश ।' सचमुच मैंने घोरतम पाप किया था, जिसका प्रायश्चित कदाचित्‌ हो ही नहीं सकता था! मुझसे अधिक पापात्मा संसार में भला कौन हो सकता था? मैं था विश्वासघाती, नीच और परस्त्रीगामी । अपना कालिमा से पुता हुआ मुँह फिर मैं वृजांगना को न दिखा सका। चुपचाप उठा और उठकर सीढ़ियों से नीचे उतरकर अपने घर आया। उस दिन मैं फिर रात भर सो न सका। अपने दुष्कृत्य पर कितना लज्जित, कितना क्षुभित और कितना क्रोधित था मैं कह नहीं सकता । बार-बार यही सोचता था कि आखिर मैं कई बार मरते-मरते क्या इसी कलुषित कार्य को करने के लिए बच गया। यदि पहले ही मर चुका होता तो यह अनर्थ होता ही क्‍यों?

ज्यों-त्यों करके रात काटी। अभी पूरा प्रकाश भी न हो पाया था कि अपनी स्त्री से यह कहके कि मैं एक आवश्यक कार्य से कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहा हूं, अपना जरूरी सामान लेकर घर से निकला। कहां जाने के लिए? कह नहीं सकता; किंतु जाना चाहता था दूर-संसार से बहुत दूर जहां से किसी भले आदमी पर मुझ पापी की छाया भी न पड़ सके। किंतु घर से निकलकर अभी दस कदम भी न चल पाया था कि नवलकिशोर का नौकर शीघ्रता से आता हुआ दिखा । किसी अज्ञात आशंका से मैं कांप-सा उठा; किंतु फिर भी मैंने जैसे उसे देखा ही न हो, इस भाव से तेजी से कदम बढ़ाए।

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